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देश की आज़ादी के लिए कुर्बान वे नायक, जिनके बारे में शायद ही सुना हो आपने
देश 75वां स्वतंत्रता दिवस मना रहा है। देश की आज़ादी हमें कई लोगों के बलिदान, साहस और त्याग से मिली है। लेकिन ऐसे कई हीरोज़ हैं, जिनके साहस की कहानियां इतिहास के पन्नों पर धुमिल हो गई हैं।
देश को आज़ाद हुए 75 साल हो गए हैं। लेकिन ये आज़ादी हमें ऐसे ही नहीं मिली। देश की स्वतंत्रता हमें कई लोगों के बलिदान, साहस और त्याग से मिली है। लेकिन ऐसे कई फ्रीडम फाइटर्स हैं, जिनके साहस की कहानियां इतिहास के पन्नों में धुमिल हो गई हैं। आइए ऐसे ही कुछ हीरोज़ की कहानियां हम हम आपको बताते हैं:
एस.आर.
शर्मा (1903 – 1965) का जन्म बेंगलुरु के एक छोटे से गांव के मध्यमवर्गीय परिवार में हुआ था। बचपन से ही शर्मा को पढ़ने और संगीत का बेहद शौक़ था। आगे चलकर वह डॉ. एन.एस. हार्डिकर द्वारा स्थापित हिंदुस्तान सेवादल में शामिल हुए और देश की आज़ादी के संघर्ष में बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया।
एस आर शर्मा की संगीत में विशेष रुचि थी। उन्होंने कर्नाटक संगीत की शिक्षा ली थी और उन्हें हिंदुस्तानी संगीत का भी अच्छा ज्ञान था। उन्होंने सेवादल में भी कई देशभक्ति गीत लिखे थे। स्वतंत्रता संग्राम में महात्माजी के नेतृत्व का उन पर गहरा प्रभाव था। उन्होंने 1924 में एआईसीसी (अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी) की बैठक में भाग लेने का फैसला किया और इसके बाद उन्होंने हिंदुस्तानी सेवादल में फ्रीडम फाइटर्स के साथ एक वॉलंटियर के रूप में काम करना जारी रखा।
श्री एस.आर.शर्मा को शारीरिक फिटनेस बनाने की तकनीक सीखने के लिए बड़ौदा में प्रो माणिक राव के श्री जुम्मदा व्यायाम मंदिर भेजा गया था। यहां से तकनीक सीखने के बाद वे सेवादल में ट्रेनर बने। सेवादल में उन्हें प्रचारक का काम भी सौंपा गया। मेहनत और ईमानदारी से काम करने के कारण शर्मा ने जल्द ही कई नेताओं का विश्वास हासिल कर लिया।
शर्मा छह साल बिहार में रहे। बिहार में स्वतंत्रता संग्राम सेे जुड़ा अपना काम पूरा करने के बाद, वह खादी और ग्रामोद्योग के माध्यम से अपनी जीविका कमाने में लगे रहे। फिर उन्होंने पुरुलिया में अपना नया बिज़नेस शुरू किया, जो रेशम की बुनाई के लिए प्रसिद्ध जगह है। बुनकर साड़ियों को बिचौलियों को बेच रहे थे और उन्हें बहुत कम रिटर्न मिल रहा था। शर्माजी उनसे साड़ियाँ खरीदने लगे।
कुछ समय बाद, उन्होंने कनकनहल्ली में रेशम का काम शुरु किया। इसके ज़रिए उन्होंने अच्छा नाम और पैसा कमाया। कंपनी के कुछ प्रोडक्ट जैसे झंडे, टाई, रूमाल और साड़ी की पूरे भारत में अच्छी मांग थी। लेकिन 1965 में उनका निधन हो गया।
2.
गुमनाम फ्रीडम फाइटर्स में एक नाम निकुंजा सेन
निकुंजा सेन की प्रारंभिक शिक्षा ढाका में हुई और यही उनके क्रांतिकारी जीवन का एक महत्वपूर्ण मोड़ साबित हुआ। हालांकि उनके माता-पिता, जन्म स्थान, प्रारंभिक जीवन और शिक्षा के बारे में जानकारी उपलब्ध नहीं है।
उन्होंने अपने क्रांतिकारी जीवन की शुरुआत हमचंद्र घोष (बरदा) के मुक्ति संघ के सदस्य के रूप में की और फिर उस समय बंगाल वॉलंटियर से जुड़े, जब प्रथम विश्व युद्ध के दौरान, बंगाल के सभी चार प्रमुख क्रांतिकारी समाज, जतिंद्रनाथ के सुझाव पर मुखर्जी (बाघा जतिन) से मिलकर काम करने के लिए सहमत हुए। वह एक अच्छे आयोजक थे और उन्होंने, कलकत्ता में राइटर्स बिल्डिंग एनकाउंटर के बादल गुप्ता जैसे कई युवाओं को क्रांतिकारी गतिविधियों में शामिल किया।
वह एक बेहतरीन मास्टर प्लानर थे और उन सभी प्रमुख क्रांतिकारी उद्यमों से जुड़े थे, जिनमें बंगाल वॉलंटियर शामिल थे। उनके मित्र सुपति रॉय की तरह, उन्हें ढाका में लेमन की हत्या से लेकर राइटर्स बिल्डिंग फीट (8 दिसंबर 1930) तक, बिनय, बादल, दिनेश द्वारा की गई हर एक घटना में शामिल किया गया था।
8 दिसंबर 1930 को, निकुंजा, बादल और दिनेश को उनके ठिकाने से ले जाकर उस स्थान पर छोड़ दिया गया, जहां लेमन, बेनॉय बसु और रसमोय सूर के साथ उनका इंतजार कर रहे थे। इसके बाद तीनों राइटर्स बिल्डिंग की ओर बढ़े, जबकि निकुंजा और रसमोय वहां से चले गए। रसमोय को घटना के कुछ ही समय बाद और निकुंजा को कुछ महीने बाद गिरफ्तार कर लिया गया और उन्हें लंबी कारावास की सजा सुनाई गई।
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उदय प्रसाद ‘उदय’
उदय प्रसाद ‘उदय’ का जन्म 12 सितंबर सन् 1898 में धमधा, दुर्ग में हुआ था। स्कूल में उन्हें हेमनाथ चंद्रवंशी नाम से जाना जाता था। बाद में उनका नाम बदलकर उदय प्रसाद ताम्रकार रखा गया। उनके पिता का नाम श्री पिलवा साव और माता का नाम श्रीमती कमला देवी था। कविताओं में उनकी बचपन से ही काफी रुचि रही। स्कूल जाने की उम्र से ही वह देशभक्ति कविताएं लिखने लगे थे। उनकी एक कविता साल 1917 में ‘सरस्वती’ में प्रकाशित हुई थी।
सन् 1930 के सविनय अवज्ञा आंदोलन में उदय प्रसाद ने अपने देशभक्ति कविताओं का पाठ किया। वह कई जुलूस में भी शामिल हुए और सभाओं में जोशीले भाषण देने के कारण अपनी विशेष पहचान बना ली थी। इसके कारण उन्हें पुलिस प्रताड़ना का शिकार होना पड़ा।
इसके बाद, वह कुछ समय के लिए अंडरग्राउंड हो गए और वहीं से लोगों को जागरूक करने का कम करते रहे। इस समय में वह दुर्ग लोकल बोर्ड के अध्यक्ष भी थे। सन् 1927 से सन् 1929 तक वह इस पद पर रहे। गुमनाम फ्रीडम फाइटर्स सरदार भगत सिंह और साथियों की गिरफ्तारी का उन पर गहरा प्रभाव पड़ा था।
वह क्रांति के लिए लोगों को भी प्रोत्साहित करते थे। नवंबर सन् 1933 में गांधीजी ने दुर्ग का दौरा किया था और तब उन्होंने हरिजन कोष में 101 रुपये दिए थे। इसके बाद वे अस्पृश्यता विरोधी आंदोलन से जुड़ गए। सन् 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन में भी उन्होंने बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया। वे गांव-गांव घूमकर लोगों को आंदोलन में शामिल होने के लिए प्रेरित करते रहे। सरकार विरोधी नारे और गीत गाने के कारण उन्हें अनेक बार पुलिस की लाठियां भी खानी पड़ी थी। उनकी नाटक कंपनी को ‘भारत विजय’ नाम के एक नाटक के कारण बंद करवा दिया गया था। 10 जुलाई 1967 में उनका निधन हो गया था।
4.
मींधू कुम्हार, गुमनाम फ्रीडम फाइटर्स में से एक
मींधू कुम्हार का जन्म धमतरी जिले के लमकेनी गांव में श्री भैरा के घर सन् 1912 में हुआ था। मात्र 18 वर्ष की उम्र में मींधू ने रूद्री नवागांव के जंगल सत्याग्रह में हिस्सा लिया था। धमतरी के प्रमुख नेता नारायण राव मेघावाले, नत्थूजी जगताप, बाबू छोटे लाल श्रीवास्तव आदि के नेतृत्व में रूद्री के आसपास के वन-ग्रामों में रहनेवाले सैकड़ों लोग 21 सितम्बर सन् 1930 को रूद्री जंगल में इकट्ठा होने लगे और वन कानूनों का सांकेतिक उल्लंघन कर जंगल सत्याग्रह में शामिल हुए।
मींधू, धमतरी के सत्याग्रह आश्रम से प्रशिक्षण प्राप्त कर चुके थे। आंदोलन की घोषणा होते ही गांधी टोपी पहनकर तिरंगा हाथ में लेकर वह अपने साथियों के साथ रूद्री पहुंचे, जहां पुलिस ने धारा 144 लगा दी थी।
पुलिस को सत्याग्रहियों को घोड़े से कुचलने, डंडे, चाबुक और कपड़े उतरवा कर नंगी पीठ पर मारने का हुक्म मिल रखा था। तब सखाराम, रतनूराम यादव और मिंधू कुम्हार के साथ अन्य सत्याग्रहियों ने हंसिए से घास काटनी शुरू की और गोली खाने के लिए आगे आ गए। वे इंकलाब जिंदाबाद और वंदे मातरम् के नारे लगा रहे थे।
गोलीबारी में तीनों को गोली लगी। सत्याग्रही उन्हें खाट पर डालकर धमतरी और फिर रायपुर लाए। मिंधू और सखाराम को बांह में और रतनू को पांव में गोली लगी थी। मिंधू को बचाया नहीं जा सका। वह 25 सितम्बर सन् 1930 को शहीद हो गए। उनका पार्थिव शरीर भी परिवार को नहीं दिया गया और कारावास में ही उनका अंतिम संस्कार किया गया। पुलिस ने उन पर देश द्रोह की धारा लगाई थी। वह धमतरी के पहले शहीद थे और मात्र 18 वर्ष की आयु में शहीद हुए थे।
5.
कैप्टन राम सिंह ठाकुर
गुमनाम फ्रीडम फाइटर्स में से एक कैप्टन राम सिंह का जन्म 15 अगस्त 1914 में धर्मशाला के गाँव खनियारा में एक फौजी परिवार में हुआ था। मिडिल स्कूल की शिक्षा पूरी करने के बाद, 1928 में वह 14 साल की उम्र में 2nd फर्स्ट गोरखा राइफल के बॉयबैंड में भर्ती हुए। द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान 23 अगस्त 1941 को राम सिंह ठाकुर व उनके साथियों को अंग्रेजी सेना के नेतृत्व में दुश्मन सेना के विरुद्ध मोर्चा लेने के लिए मुंबई से मलाया-सिंगापुर जाने का आदेश मिला।
दिसंबर 1941 को जापानी सेनाओं ने मलाया-सिंगापुर और फिर थाईलैंड में जोरदार हमला बोल दिया। फरवरी 1942 में युद्ध सामग्री, गोला बारूद और खाद्यान्न के घोर अभाव के कारण अंग्रेजी सेनाओं को पीछे हटने के लिए मजबूर होना पड़ा। इस युद्ध में जापानी सेना ने लगभग 55 हज़ार भारतीय सैनिकों को बंदी बना लिया, जो अंग्रेज़ी सेना की तरफ से लड़ रहे थे। इन हालातों में राम सिंह ठाकुर भी जापानी सेना के हाथों पकड़े गए।
जब नेताजी सुभाष चंद्र बोस के अधीन आज़ाद हिंद फौज का गठन हुआ, तो उसमें कैप्टन राम सिंह ठाकुर भी शामिल हो गए। संगीत के प्रति उनकी अधिक रुचि, लगन और मेहनत को ध्यान में रखते हुए उन्हें आई.एन.ए.
बैंड में कप्तान रैंक से नवाज़ा गया।
3 जुलाई 1943 को नेताजी सिंगापुर पहुंचे, तो उनके स्वागत और सम्मान में कैप्टन राम सिंह ठाकुर के निर्देशन में एक गीत सुनाया गया जिसके बोल थे – “सुभाष जी, सुभाष जी, वो जाने हिन्द आ गए, है नाज़ जिस पर हिन्द को, वो शान ए हिन्द आ गए।” नेताजी इस गीत को सुनकर काफी ज्यादा प्रभावित हुए। 23 जनवरी 1940 को नेताजी सुभाष चंद्र बोस के जन्म दिवस के उत्सव पर कैप्टन राम सिंह ठाकुर को नेता जी द्वारा स्वर्ण पदक से नवाज़ा गया था।
मई 1945 में अंग्रेज़ी सेना ने रंगून पर दूसरी बार अपना कब्ज़ा जमा लिया, जिसकी वजह से आज़ाद हिंद फौज के अन्य सैनिकों के साथ कैप्टन राम सिंह ठाकुर को भी जंगी कैदी बनाया गया और उन्हें भारत लाकर दिल्ली के लाल किले की जेल में बंद कर दिया गया। लेकिन यह कैप्टन राम सिंह ठाकुर की खुशकिस्मती थी कि जनरल शाहनवाज, कर्नल ढिल्लों और कर्नल सहगल का केस अंग्रेज़ सरकार हार गई, जिसकी वजह से मजबूर होकर कैप्टन राम सिंह ठाकुर सहित आज़ाद हिंद फौज के सभी जंगी कैदियों को रिहा करना पड़ा।
आखिरकार 15 अगस्त 1947 को, अनगिनत फ्रीडम फाइटर्स के त्याग और समर्पण का परिणाम मिला और भारत आज़ाद हो गया। भारत के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू जब ऐतिहासिक लाल किले पर राष्ट्रीय ध्वज फहराने लगे, तो पंडित नेहरू के विशेष अनुरोध पर कैप्टन राम सिंह ठाकुर के निर्देशन में आई एन ए ऑर्केस्ट्रा कलाकारों द्वारा आज़ाद हिंद फौज का कौमी तराना, “शुभ चैन की बरखा बरसे, भारत भाग्य है जागा” की धुन बजाई गई।
आगे चलकर यही धुन हमारे स्वतंत्र भारत के राष्ट्रीय गान ‘जन गण मन अधिनायक जय हे, भारत भाग्य विधाता’ के लिए अपनाई गई। कैप्टन रामसिंह और उनकी ऑर्केस्ट्रा टीम को 1948 में उत्तर प्रदेश सरकार ने अपने पी.
ए. सी. बैंड में भर्ती किया। अपनी 26 वर्षों की सेवा के बाद, वह उप पुलिस अधीक्षक के पद से सेवानिवृत्त हुए।
कैप्टन राम सिंह ठाकुर की बहुमूल्य सेवाओं को देखते हुए उत्तर प्रदेश सरकार ने उन्हें आजीवन उप पुलिस अधीक्षक के रैंक पर रखने का निर्णय लिया और इस तरह कैप्टन रामसिंह ठाकुर अपनी अंतिम सांस तक उप पुलिस अधीक्षक रैंक पर ही रहे। 15 अगस्त 1970 को भारत सरकार और उत्तर प्रदेश सरकार दोनों ने मिलकर कैप्टन राम सिंह ठाकुर को स्वतंत्रता सेनानी पेंशन देने का निर्णय लिया और उन्हें ताम्रपत्र भेंट कर सम्मानित किया। 15 अप्रैल 2002 को कैप्टन राम सिंह ठाकुर ने अंतिम सांस ली।
संपादनः अर्चना दुबे
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